ह’ज़रत इ’माम हु’सैन की लाड़ली बेटी स’कीना ने किया अपने भाई इ’माम जै’नुल आ’बेदीन से ऐसा सवाल कि कै’द’खाने में मचा को’हरा’म

ह’जरत इ;माम हु’सैन जिनकी पूरी दुनिया दीवानी है, इनके आस्थाने पर हजारों लोग जि’यारत के लिए जाते है। ह’जरत इ’माम हु’सैन जिनकी याद में मो’हर्रम मनाया जाता है। मो’हर्रम इ’स्ला’मी कैलेंडर के अनुसार पहला महीना है। क’र्बला में श’ही’द हुए इ’माम हु’सै’न प्या’स से त’ड़’प’ते हुए अपने दी’न के लिए बिना परवाह किए सब कुछ कु’र्बान कर दिया। ह’ज’रत स’की’ना स’ला’मु’ल्लाह ने अपने भाई ह’ज’र’त जे’नुल आ’बे’दिन अ’लै’हिस्स’लाम के पास जाकर एक सवाल किया ।

जब जिं’दान के अंधेरों में कई रात और दिन बीत जाने के बाद ह’ज’र’त इमाम हुसैन की लाडली बेटी ने कहा कि आप भाई अपने वक्त के स’ज्जा’द , आप इ’मा’म है। इ’मा’मे वक्त हर हाल में आ’रा’स्था होता है। मैं आपसे एक सवाल करती हूं आप मुझे बताए ‘प्या’स’ की कितनी मं’जिले होती है। ज’ना’बे स’की’ना का यह सवाल सुनकर जनाबे जै’न’ब स’ला’मु’ल्ला’ह त’ड़प जाती है। इस सवाल के बाद ह’ज़’र’त जै’न’ब स’ला’मु’ल्लाह , ह’ज़’रत स’की’ना को गोद में उठाती है और उन्हें प्यार करती है।

मेरी बच्चे तू ऐसा क्यों बोलती हो इ’मा’म स’ज्जा’द अ’लै’हिस्स’लाम ने कहा- फूफी अम्मा सकीना ने से सवाल अपने वक्त के इ’माम से किया है। मुझ पर ला’जीम है की मैं इसका जवाब दु। इ’माम ने फ’रमाया बहन स’कीना प्या’स की कुल चार मंजिले होती है। पहली मंजिल वो होती है जब इं’सान इतना प्या’सा हो कि उसको आं’खों से धु’आं धुँ’आ दिखाई दे और उसको जमीन या आसमान का कोई फर्क महसूस ना हो।

जनाबे स’की’ना- हा मेने अपने भाई को बाबा से कहते सुना था, चा’चा जान में इतना प्या’सा हु की मु’झे ज’मीन और आसमान तक धुँ’आ से दिखाई देता है। इ’मा’म ने फिर फरमाया- प्यास की दूसरी मंजिल है जब किसी की जुबान सूख’कर ता’लु तक चि’पक जाए। स’कीना ने कहा- हा जब भाई अ’कबर ने अपनी सुखि जबान बाबा के दह’न में रखकर सामने निकली थी तो और कहा था बाबा आपकी जुबान तो मेरे से भी ज्यादा खु’श्क है तब मेरा बाबा प्या’स की दूसरी मंजिल में था।

इ’माम ने फिर फरमाया प्यास की तीसरी मंजिल वो है जब किसी म’छली को पा’नी में से निकल कर रे’त पर डा’ल दे तो और फिर वो म’छली सा’क़ित सी हो जाए । और वह अपना मुं’ह बार बार खो’लती और ब’न्द करती हैं। ज’नाबे स’कीना हा जब मेरे बाबा ने भाई अ’ली अ’स’ग’र को क’र्बला की ज’ल’ती रे’त पर लिटाया तो मेरा भाई भी त’ड़’पने लगा और सा’कित से हो गया। अपना मुं’ह खोलता और बन्द करता था।

शायद मेरा भाई उस वक्त प्या’स की तीसरी मंजिल पर था। इ’माम ने फिर आगे फरमाया प्यास की चौथी और आखरी मंजिल वो है । जब इंसा’न के ब’दन की नमी बि’ल्कुल ख’त्म हो जाए और गो’श्त ह’ड्डियों को छोड देता है। इं’सा’न की मौ’त हो जाती है। स’कि’ना कहती है और अपने हा’थों को इ’मा’म के आगे करती है। भाई स’ज्जा’द मैं अब प्या’स की आखरी मं’जिल में हु। देखो मेरे ब’दन में से गो’श्त ने ह’ड्डि’यों का साथ छोड़ दिया है।

अब मैं अपने बाबा के पास जाने वाली हूँ। सकिना के यह अ’ल्फा’ज कहते ही कै’द ‘खा’ने में एक को’ह’राम ब’र’पा हो जाता है। ह’ज़’रत स’की’ना की प्या’स को आ’ज भी या’द रखा जाता है। ह’म प्या’स की किसी भी मंजिल पर पहुंचना तो छोड़िये आज के मु’स’ल’मान रमजान मा’ह में रो’जे नहीं रखते है। थो’ड़ी ग’र्मी लग’ने पर प्या’स प्या’स कहते हुए नज़र आते है। हम आज प्या’स की पहली मं’जिल तक भी नही पहुँच सकते है।

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